निजी कंपनियों के आने से खेतीबाड़ी का सत्यानाश हो जाएगा। वह कॉन्ट्रैक्ट पर फ़ार्मिंग करेगी। उत्पादन को बढ़ाने के लिए नई-नई तकनीक का इस्तेमाल करेगी। वैज्ञानिक तरीक़े से खेतीबाड़ी होगी और उसके भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज बनाएगी।
वहां पर वह तब तक उस फसल को रखेगी जब तक कि उसे ऊंची कीमत नहीं मिलेगी। जमीन किसानों के हाथ से निकल जाएगी? इसी चिंता में किसान हैं और उनकी चिंताओं को बढ़ाने के लिए किसान नेता हैं और बहुत सारे बुद्धिजीवी कुछ दिनों तक मैदान में थे। लेकिन आंदोलन के लंबा चलने की वज़ह से वे अब किनारा कर चुके हैं।
अब कोई आगे आकर ये भी बता दे कि किसी भी फसल का कितने दिनों तक भंडारण किया जा सकेगा? जब नई फसलें आएंगी तो फिर उसका क्या किया जाएगा? कहां रखा जाएगा? कोल्ड स्टोरेज में फसलें आती जाएंगी और उसकी भंडारण क्षमता कभी खत्म ही नहीं होगी?
अब बात मंडियों की करते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर हो-हल्ला मचा है। क्या ये किसानों को अभी मिल रहा है? कितने किसान मंडियों में जाकर अपनी फसलों को बेच पा रहे हैं? वहां पर ख़राब होने वाले फ़सलों का कौन जिम्मेदार है? सबसे बढ़कर इससे अबतक कहां किसानों का हित सध रहा है?
कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग किसानों की मजबूरी है। कानून के बनने से पहले भी किसान कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करते रहे हैं। उससे पैदावार को बढ़ाने में मदद मिल रही है। उनकी कमाई अच्छी हो रही है। इसमें उन्हें इस बात की फिक्र नहीं रहती है कि उनकी फसल बर्बाद हो जाएगी। वो उसका भंडारण कैसे और कहां करेंगे। लंबे वक़्त तक भंडारण का खर्च वो कहां से वहन कर पाएंगे?
कृषि कानून किसानों के हितों पर कहां से कुठाराधात है, इसका जवाब बुद्धिजीवियों से पूछ लीजिए। वही कहेंगे जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। व्यवस्था में बेहतर परिवर्तन लाने के लिए उन्होंने सड़कों पर किसानों को छोड़ कर अपनी-अपनी दुनियादारी में लीन हो चुके हैं।
भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने देशहित में है। इसमें अपार संभावनाएं मौजूद है और इसमें प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी ज़रूरी है। देशभर के किसानों को अप-टू-डेट करने की बात करना बेमानी है। उन्हें उनके पास की जमीन की पैदावार की वाज़िब क़ीमत दिलाना ज़रूरी है और ये संभव भी है।
फसलों का भंडारण ख़तरनाक साबित नहीं होगा, यक़ीन मानिए। प्राइवेट भागीदारी से उत्पादन घटेगा नहीं बल्कि बढ़ेगा, इस बात का गांठ बांध लीजिए। सहमति और असहमित अपनी जगह है, मगर भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था सरकारी तंत्रों और व्यवस्थाओं से मजबूत होने से तो रही। वहां पर कामकाज का तरीक़ा अगर ठीक होता तो बरसों से किसानों का जो हाल हुआ पड़ा है। उसका रोना रोने की शायद ज़रूरत नहीं पड़ती।
खेतीबाड़ी के निजीकरण को लेकर जो अलाप किया जा रहा है, वो बेबुनियाद है। ज़मीनी उत्पादन को बढ़ाने का इससे कोई आसान रास्ता हो तो बात समझ में आती। लेकिन सच तो ये है कि खेतीबाड़ी के निजीकरण से जो प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, उसका लाभ आम लोगों को मिलेगा और कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग उन किसानों को राहत पहुंचाएगा जो अपनी पैदावार से अपने लिए भी रोजी-रोटी का इंतज़ाम नहीं कर पा रहे हैं।
कृषि कानून के परिवर्तित व्यवस्था को स्वीकार करने की बाध्यता किसानों की नहीं है। फिर चिंता की रेखाएं क्यों खींची जा रही है?