कांग्रेस के जो नेता बरसों तक बिना कुछ किए कराए ‘सत्ता सुख भोग’ कर अघाते नहीं थे वह अब पार्टी की ग़लत नीति और रणनीति से परेशान हैं। गांधी परिवार के ‘आधिपत्य’ को स्वीकार करने में खुद को धन्य समझने वाले ये वो नेता हैं जो अपने बलबूते चुनाव जीत कर कभी संसद नहीं पहुंचे हैं। फिर बात चाहे ग़ुलाम नबी आजाद की हो, कपिल सिब्बल की, आनंद शर्मा की, मनीष तिवारी की या फिर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा की। इस तरह के कुल जमा 23 नेता हैं जिनके हिसाब से कांग्रेस कमजोर हो चुकी पार्टी है और वो इसके खिलाफ जाकर उसे मजबूत बनाना चाहते हैं।
रही बात राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की कब्र खुदने की तो ये बात सौ प्रतिशत सत्य है। राहुल गांधी के नेतृत्व को पहले देश के मतदाताओं ने नकारा तो कांग्रेस से उनके बदले प्रियंका गांधी बढ़ेरा को मैदान में उतारा। प्रियंका गांधी बढ़ेरा में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की छवि और उनकी दृढ़ता दिखने वाले नेताओं की आंखों से भी ज़ल्द ही पर्दा उतर गया। तस्वीरें साफ हुई तो राहुल गांधी के बदले प्रियंका गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की उम्मीदें भी ख़त्म हो गई। उनकी राजनीतिक सूझबूझ देखिए कि जिन पांच राज्यों में विधानसभा का चुनाव हो रहा है उसमें पश्चिम बंगाल सबसे महत्वपूर्ण है और दोनों के दोनों वहां से ‘ग़ायब’ हैं।
बाकी के जितने नाम ऊपर गिनाए हैं, वो तो बस इस फ़िराक़ भर में हैं कि कहीं से कोई उन्हें संसद में पहुंचाने का इंतज़ाम भर कर दे। फिर चाहे वो पार्टी कांग्रेस की हो, भारतीय जनता पार्टी की या फिर कोई और पार्टी हो। फिर किसी ‘विचारधारा’ के नाम से भी उन्हें ‘नफ़रत’ है। यक़ीन करने के लिए ज़्यादा पीछे मुड़ने की ज़रूरत नहीं है। गु़लाम नबी आज़ाद कांग्रेस से तक़रीबन ‘आज़ाद’ होने का जुगाड़ लगा रहे हैं। उनकी उम्मीदों को तभी पंख लग गए थे जब संसद से उनकी विदाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘ऐतिहासिक’ बना दिया। अब वो अपने सिर पर भगवा साफा बांधकर घूम रहे हैं और इस बात के जो राजनीतिक अर्थ लगाए जाने चाहिए, वही उसका अर्थ भी है।
हालांकि, दूसरे पार्टी बदलने वाले नेताओं की तरह उन्होंने भी साफ कर दिया है कि भारतीय जनता पार्टी में जाने का उनका कोई इरादा नहीं है। वो अपने इरादे के कितने पक्के हैं इसकी पुष्टि होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगने वाला है। राहुल गांधी के भरोसे कांग्रेस वेंटीलेटर से नहीं उठ पाएगी, इतना तय है। उन्हें राजनीतिक तौर पर जो दीक्षा दी गई है वह असल में उन्हें ‘विदूषक’ की भूमिका निभाने तक सीमित कर रखने के लिए है। कुछ भी कहिए देशभर में पार्टी का आकार सिकुड़ता जा रहा है लेकिन अगर अभी भी पार्टी का नाम ज़िंदा है तो वह इसकी वज़ह सिर्फ राहुल गांधी ही हैं, जो विवाद पैदा कर आबाद रहने की कला जानते हैं।
उनके उत्तर-दक्षिण के हालिया विवादस्पद बयान के जरिए इसे समझा जा सकता है। पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव जब भारतीय जनता पार्टी बनाम ममता बनर्जी के बीच सिमट कर रह गया है। उसमें कांग्रेस का ज़िक्र तक नहीं हो रहा है तो ये उनका ही खड़ा किया विवाद है। जिससे ये माना जा रहा है कि अटकी हुई सांस के साथ कांग्रेस अभी जिंदा है, मगर कबतक इस सवाल का हल उन्हें ढूंढ़ना है जो अबतक गांधी की विरासत वाली पार्टी में मलाई काटते रहे हैं।
कांग्रेस का मुक़ाबला भारतीय जनता पार्टी से है, जिसके पुरोधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। गृहमंत्री अमित शाह हैं। राजनीतिक मुहावरे को अपनी तरह से गढ़ने वाले नरेंद्र मोदी और अमित शाह का कोई विकल्प क्या कांग्रेस दे पाएगी? फिलहाल तो ऐसी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। ऐसे में कांग्रेसी नेताओं के लिए यही एक विकल्प बचता है कि वो अपनी ही पार्टी के नाम का राम नाम सत्य कर दें और इसकी शुरूआत हो चुकी है।