कोरोना वायरस का ख़तरा कम हुआ है, ख़त्म नहीं हुआ है। लेकिन दो गज की दूरियां पहले दो इंच और अब इंचभर से कम दूरियों में सिमटती जा रही है। फिजिकल और सोशल डिस्टेंस का अंतर समझे बगै़र जो लोचा किया गया वह अभी भी उसी फ़ार्मेट में चलन में है।
इससे बहुत ज़्यादा फ़र्क़ भी नहीं पड़ता है। लोगों को सही वक़्त पर उसका सही अर्थ समझ में आ गया और कोरोना का प्रचार प्रसार थम गया। देश के कुछ हिस्सों से कोरोना पाॅजिटिव के मामले हमारे होश ज़रूर उड़ा रहे हैं लेकिन हमारे बेफ़िक्र होने पर अब उसका ज़्यादा असर नहीं पड़ रहा है।
कोरोना नया वायरस था और उसके असर को लेकर जानकारी की कमी थी, लेकिन हर कोई इसमें ज्ञानी होने का सबूत दे रहा था। सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया पर धुरंधरों ने अपने ज्ञान का बख़ान कर-करके लोगों को डरा-डरा कर पानी पिलाया। लोगों ने छांककर पानी भी पिया। गर्म पानी का बाजार गर्मा गया। सैनिटाइज़र का इस्तेमाल तो इतना बढ़ा कि कईयों के हाथ काले से सफेद हो गए। फेस मास्क ने एक-एक के चेहरे का ढ़क दिया और अभी भी चेहरा छिपाए बग़ैर सड़कों पर घूमने वालों की ख़ैर-ख़बर लेने में कोई ढ़ील नहीं दी गई है।
फिजिकल डिस्टेंस को लेकर अभी भी जब-तक इलाज नहीं, तब-तक ढ़िलाई नहीं का पाठ पढ़ाया जा रहा है। मेट्रो में और बसों में उसपर कड़ाई से पालन के लिए स्टीकर लगाकर बताया गया है कि लोगों को कहां खड़ा होना चाहिए-कहां नहीं। कमाल यहीं पर हो रहा है। मेट्रो में लोग एक सीट छोड़कर बैठ रहे हैं मगर गलियारे में उनके बीच की दूरियां ख़त्म हो गई है।
बार-बार यात्रियों को आगाह किया जाता है कि इस ट्रेन में तय संख्या से ज़्यादा यात्री यात्रा कर रहे हैं। अनुरोध है कि वे अपने बीच एक निश्चित दूरी बनाकर रखें। जब यात्रियों की संख्या ज़्यादा हो गई है तो फिर दुरियां कहां से बनेगी!
अब बसों की तरफ़ बढ़ते हैं। इसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पूरी तरह से सख़्ती बरत रहे हैं। जितनी सीटें हैं, उतने ही लोग उसमें यात्रा कर सकते हैं। दिल्ली सरकार के इस लाॅजिक में मैजिकल इनपुट को समझा जा सकता है। सीटों पर बैठकर सफर करने से कोरोना छूत की बीमारी नहीं रह जाती है। बसों पर चढ़ने के लिए आपस में एक-दूसरे के साथ सटने पर भी ये बेअसर है।
मेट्रो में एक-दूसरे के करीब खड़े होने पर भी ये नहीं फैलता है। ये तब फैलेगा जब बस में लोग गलियारे में खड़े होकर एक-दूसरे से सटकर सफर करेंगे। एक और कमाल की बात ये भी है कि मिनी बसों में फिजिकल डिस्टेंसिंग के ख़त्म होने पर कोरोना वायरस का प्रभाव अप्रभावी ही रहता है। बैटरी रिक्शा और ऑटो की कहानी भी ऐसी ही है। कुल मिलाकर कोरोना के फैलने के तरीक़े के बारे में हमारी अबतक की सारी जानकारी गलत साबित हुई है।
सैनिटाइजर के इस्तेमाल से मक्खियां मर नहीं रही हैं, कोरोना कैसे मर जाएगा? फेस मास्क तो पता नहीं इससे हमें बचा रहा है या नहीं मगर हमारी सांसों की परेशानी ज़रूर शुरू हो गई है। फिजिकल डिस्टेंस ख़त्म होने से अगर ये फैल रहा होता तो अभी हम कोरोना पाॅज़िटिव की गिनती भूल गए रहते और मौतों की गिनती करते करते थक जाते। लेकिन शुक्र है कि कोरोना के फैलने के सारे मिथकीय कहानी गलत साबित हुए हैं।
मगर कोरोना वायरस को हल्के में नहीं लिया जा सकता। ये जानलेवा है और इससे तबतक निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता है जबतक कि दो बूंद जिंदगी की पोलियो ड्रॉप की तरह हर व्यक्ति को कोरोना वायरस का टीका नहीं लग जाता। कोरोना वायरस के ताबूत में आखि़री कील ठोंकने की तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही है और देश का हर व्यक्ति टीके का कवच धारण कर इससे सदा-सदा के लिए राहत महसूस करने वाला है।