आजादी का अमृत महोत्सव: जब भदौरिया की लालसेना ने चंबल में बिना खून खराबे के उड़ा दिए थे अंग्रेजों के छक्के

0
17
अर्जुन सिंह भदौरिया
कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया

इटावा। कई दशकों तक दुर्दांत डकैतों की शरणस्थली के तौर पर कुख्यात रही चंबल घाटी को कौन नहीं जानता है। चंबल घाटी का नाम आजादी की लड़ाई में भी रोशन हुआ था जब कमांडर के नाम से मशहूर अर्जुन सिंह भदौरिया की लालसेना ने अंग्रेजों की गोरी सरकार को बिना किसी खून खराबे के भारत में दिन गिनने को मजबूर कर दिया था।

लालसेना के महत्वपूर्ण हिस्सा रहे गुलजारी लाल के पौत्र एवं वरिष्ठ पत्रकार गणेश ज्ञानार्थी बताते हैं कि उनके बाबा रायॅल एसर फोर्स में सेवारत हुआ करते थे, लेकिन 1920 में महात्मा गांधी के अग्रेंजो भारत छोड़ो आह्वाहन से प्रेरित होकर नौकरी छोड़कर आजादी के आंदोलन में कूद पडे़। कंमाडर साहब के साथ मिलकर चंबल नदी के किनारे तोप चलाने से लेकर बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी बाकायदा अपने साथियों को दिया करते थे।

आजादी के आंदोलन में लालसेना में थे करीब 5000 सशस्त्र बल

ज्ञानार्थी ने कहा कि लालसेना में करीब 5000 के आसपास सशस्त्र सदस्य आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया था। वे बताते हैं कि लालसेना से लोगों का जुड़ाव इसलिए बढ़ा था क्योंकि ग्वालियर रियासत की सहानूभूति अग्रेजों के प्रति हुआ करती थी। इसलिए जब चंबल में कंमाडर साहब ने लालसेना खड़ी की तो लोग एक के बाद एक करके जुड़ना शुरू हो गये और एक समय आया जब लालसेना का प्रभुत्व पूरे चंबल में नजर आने लगा और उसने अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिये।

कंमाडर अर्जुन सिंह भदौरिया के बेटे सुधींद्र भदौरिया बताते हैं कि चंबल में लालसेना के जन्म की कहानी भी बड़ी ही दिलचस्प है। उस समय हर कोई आजादी का बिगुल फूंकने में जुटा हुआ था। उनके पिता भी आजादी के आंदोलन में कूद पडे़। उन्होंने चंबल घाटी में लालसेना का गठन करके लोगों को जोड़ना शुरू किया और छापामारी मुहिम जोरदार तरीके से शुरू किया। इसकी प्रेरणा उनको चीन और रूस में गठित लालसेना से मिली थी जो उस समय दोनों देशों में बहुत ही सक्रिय सशस्त्र बल था।

भदौरिया ने जनसामान्य के लिए किया बहुत कुछ

उनका कहना है कि लालसेना के गठन के वक्त जो प्रण उनके पिता ने चंबल के विकास के लिए किया था वो उन्होंने राजनैतिक पारी के साथ होने पर पूरा करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। उनको आज भी याद है कि चंबल नदी पर पुल का निर्माण नहीं था, तब पीपे के पुल बना हुआ था। जब कभी भी चंबल के पार जाना होता था तब पीपे के पुल के ही माध्यम से जाना हुआ करता था।

वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लाल सेना का गठन किया, जिसने उत्तर प्रदेश के इटावा में चंबल घाटी में आजादी का बिगुल फूंकते हुए अंग्रेजी राज के छक्के छुड़ा दिए। इस क्रांतिकारी संग्राम में पूरा इटावा झूम उठा तथा करो या मरो के आंदोलन में कमांडर को 44 साल की कैद हुई।

कमांडर ने आजादी की जंग पूरी ताकत, जोश, कुर्बानी के जज्बे में सराबोर होकर लड़ी। उन्होंने बराबर क्रांतिकारी भूमिका अपनाई और लाल सेना में सशस्त्र सैनिकों की भर्ती की तथा ब्रिटिश ठिकानों पर सुनियोजित हमला करके आजादी हासिल करने का प्रयास किया। इस दौरान अंग्रेजी सेना की यातायात व्यवस्था, रेलवे, डाक तथा प्रशासन को पंगु बना दिया। अंग्रेज इनसे इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में हाथ पैरों में बेड़िया डालकर रखा जाता था। अपने उसूलों के लिए लड़ते हुए वे तकरीबन 52 बार जेल गये।

स्वतंत्रता सेनानियों ने दिया कमांडर की उपाधि

अर्जुन सिंह भदौरिया को कमांडर की उपाधि स्वतंत्रता सेनानियों ने दिया। कहा जाता है कि आजादी की लड़ाई में अपनी जुझारू प्रवृत्ति और हौसले के बूते अंग्रेजी हुकूमत का बखिया उधड़ने वाले अर्जुन सिंह भदौरिया को इस उपाधि से स्वतंत्रता सेनानियों ने नवाजा था। कमांडर ने इसी जज्बे से आजाद भारत में आपातकाल का जमकर विरोध किया। तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी, जिससे प्रभावित क्षेत्र की जनता ने सांसद चुनकर उन्हें सर आंखों पर बैठाया।

तीन बार इटावा से सांसद चुने गए

10 मई 1910 को बसरेहर के लोहिया गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौेरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। 1942 में उन्होंने सशस्त्र लालसेना का गठन किया। बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नांको चने चबबा दिये। 1957, 1962 और 1977 में भदौरिया इटावा से लोकसभा के लिए चुने गए। कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया का संसद में भी बोलने का अंदाज बिल्कुल जुदा रहा। 1959 में रक्षा बजट पर सरकार के खिलाफ बोलने पर उन्हें संसद से बाहर उठाकर फेंक दिया गया। लोहिया ने उस वक्त उनका समर्थन किया। पूरे जीवनकाल में लोगों की आवाज उठाने के कारण 52 बार जेल भेजे गए।

आपातकाल में उनकी पत्नी तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्रीमती सरला भदौरिया और पुत्र सुधींद्र भदौरिया अलग-अलग जेलों में रहे। पुलिस के खिलाफ इटावा के बकेवर कस्बे में 1970 के दशक में आंदोलन चलाया था। लोग उसे आज भी बकेवर कांड के नाम से जानते हैं। अर्जुन सिंह भदौरिया की एक खासियत यह भी रही है कि चाहे अग्रेंजी हुकूमत रही हो या फिर भारतीय, कमांडर कभी झुके नहीं। लोकतांत्रिक भारत में भी तीन बार सांसद के लिए चुने गए। उनकी पत्नी भी राज्यसभा के चुनाव जीती। जनहित के बडे़ और अहम मुद्दे उठाने में कंमाडर का कोई सानी नहीं रहा है।

अर्से से अपेक्षित चंबल में दौड़ी विकास की लहर

इटावा के सांसद अर्जुन सिंह भदौरिया का सपना उस वक्त सच हुआ जब 27 फरवरी 2016 को अर्से से उपेक्षित चंबल घाटी में यात्री रेलगाड़ी की शुरूआत हुई। 1957 में पहली बार सांसद बनने के बाद सदियों से अपेक्षित चंबल घाटी में विकास का पहिया चलाने का निर्णय किया। उसके बाद भदौरिया ने रेल संचालन का खाका खींचते हुए 1958 में तत्कालीन रेलमंत्री बाबू जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने अपनी मांग रखी।

कंमाडर भदौरिया के जीवन काल में इटावा में उनका रेल संचालन का सपना पूरा नहीं हो सका। लेकिन कंमाडर भदौरिया के सपने को 1986 में माधव राव सिंधिया ने पूरा करने का बीड़ा उठाते हुए इटावा में रेल संचालन पर अमल शुरू किया।

कमांडर की ऐतिहासिक पुस्तक नीव के पत्थर के सहयोगी लेखक नरेश भदौरिया कहते हैं कि नीव के पत्थर के जरिये आजादी के आंदोलन के दरम्यान चंबल में लाल सेना की गतिविधियों को संजोया गया है, जोकि चंबल का ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसकी कोई दूसरी बानगी देखने को नहीं मिलेगी। नीव की पत्थर आज की पीढ़ी लालसेना की ऐतिहासिकता को देख और समझ सकती है।